Friday, December 30, 2011


" प्रभु अक्षतपुर के वासी हो, मै भी तेरा विश्वासी हूँ |
  क्षत - विक्षत में  विश्वास नहीं ,तेरे पद का प्रत्याशी हूँ || "

Monday, December 26, 2011

सीमंधर मुख से फुलवा खिरे.............

"समयसार" स्तुति

समयसार ज्ञान गंगा प्रवाहक : पूज्य गुरुदेव

ग्रंथाधिराज समयसार ने अनेक भव्य  जीवो के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन किये है | समयसार की गाथाओ ने अनेक लोगो की विचारधारा में आमूलचूल परिवर्तन कर अपना मत परिवर्तन करने को विवश कर दिया जिनमे पंडित बनारसीदास जी श्रीमद राजचंद्र जी वर्णी जी के साथ साथ वर्तमान समय में जिस महापुरुष की   जीवन धारा को " समयसार " ने परिवर्तित कर दिया वे पूज्य गुरुदेव श्री कांजी स्वामी का नाम प्रमुख है | श्वेताम्बर संप्रदाय में जन्म लेने के बाद भी पूर्व भव के संस्कार और परिपक्व योग्यता के कारण समयसार के पहली बार दर्शन करते ही उनकी ज्ञान पिपासा  सत्य की खोज को परम तृप्ति मिल; गयी थी | "समयसार"  के दर्शन करते ही उनके प्रथम उदगार कुछ इस प्रकार थे - " अरे यह तो अशरीरी होने का शास्त्र है| "
 वर्तमान में ग्रन्थाधिराज "समयसार" की अतिशय आराधना प्रभावना  का श्रेय  एक मात्र पूज्य गुरुदेव श्री को जाता है | जितनी विपुल मात्रा में प्रभावना वर्तमान में इस ग्रंथाधिराज "समयसार " की हुई है इतनी अधिक प्रभावना किसी अन्य ग्रन्थ की इससे पूर्व नहीं हुई थी | " समयसार " की ऐसी आश्चर्यजनक प्रभावना सोनगढ़ के संत ने की जो आज तक निरंतर अपने तीव्र वेग के साथ जारी है | वास्तव में पूज्य गुरुदेवश्री ने इस युग को समयसार युग बना दिया है | आज यदि कोई "समयसार " का नाम भी लेता है तो  स्वतः ही उसके सोनगढ़ी अथवा कहान गुरुदेव का अनुयायी मान लिया जाता है | इस प्रकार " समयसार "  सोनगढ़  और  गुरुदेवश्री एक दुसरे के पर्यायवाची बन गए है |
 " समयसार " के प्रभाव से न केवल पूज्य गुरुदेवश्री ने अपना श्वेताम्बर मत परिवर्तन कर आचार्य कुन्दकुन्द के आत्म कल्याणकारी  मूलाम्नाय दिगंबर जैन धर्म को स्वीकार किया अपितु अनेको अनेक श्वेताम्बर मतावलंबियो ने भी दिगंबर जैन धर्म की महानता को स्वीकार कर अपना मत परिवर्तन कर लिया | 
ग्रंथाधिराज "समयसार" के एक- एक शब्द का भाववाही मर्मस्पर्शी अध्ययन चिन्तंत मनन  अंतर्मुखी होकर अनेको बार किया और ग्रंथाधिराज का सूक्ष्म  विवेचन 19  बार सार्वजनिक सभा में किया |
 सेंकडो भाषा भाषी युक्त इस भोगप्रधान  मंदबुद्धि आधुनिक युग के हम सभी जीवो को जिन्हें  आचार्यो की प्राकृत और संस्कृत भाषा में रचे गए शास्त्रों को पढ़ पाना ही अत्यंत कठिन कार्य है तो उन शास्त्रों को पढ़कर आचार्यो के मंतव्य को पहचान कर शास्त्र के मर्म ........ भाव को  ग्रहण कर पाना हमारे लिए असंभव सा था | ऐसे समय  में काल के मंगल मुहूर्त में दिगंबर जैन प्रांगण पर पूज्य गुरुदेवश्री का अवतरण  युग की एक क्रांति थी|  सदियों से कपाटो में बंद  जिनवानी के विमोचक पूज्य गुरुदेव के तत्त्व संपादन की एक प्रतिस्पर्धात्मक कहानी है | श्रुत रत्नाकर  "समयसार " उन्हें मिला, जैसे सत्य का पिटारा ही पाया हो | अब वह ग्रंथाधिराज पन्नो पर लिखा न रहा अपितु वह तो उनके ज्ञान में उनकी अनुभूति में छप चुका था और उनके मान मंदिर में उपास्य देव के रूप प्रतिष्ठा प् चुका था | यही समयसार अभीष्ट मित्र के समान जीवन के अंतिम क्षण तक उनके साथ रहा | 
दिगंबर जैन  संतो के ग्रंथो का अपने स्वच्छ ज्ञान द्वारा दोहन कर उन्होंने शुद्ध आत्म तत्त्व की प्रतिष्ठा की |
पूज्य गुरुदेव के आगमन के पूर्व आध्यात्मिक चिंतन का रिवाज तो था पर चिंतन में आध्यात्म नहीं था | सच कहा जाए तो पथ तो था पर पाथेय इस युग को आपसे ही मिला |  
मुनि भगवंत तो जैन शाशन के सम्राट है वीतराग मार्ग के मजबूत स्तंभ है ......जैन धर्म के सहारे है ....केवली के लघुनंदन है  इस प्रकार के  भावोदगार  दिगंबर जैन मुनियों के प्रति आपके थे | 
दिगंबर जैन संतो के अमृत जल से भरी हुई यह आध्यात्म सावनी बदरिया 45  वर्षो तक मूसलाधार बरसती रही और मुमुक्षु भव्य जीवो को आकंठ अमृतपान करवाती रही | वस्तुस्वतंत्र्ता की गर्जना करती , कर्तावाद की जड़ो को हिला कर रख देने वाली वायु तरंग सी आपकी वाणी अद्भुत आश्चर्यजनक है जिसने लाखो मुमुक्षुओ के चिंतनधारा को दिशा प्रदान की | सत्य दृष्टा गुरुदेव और उनकी भवतापहारी वाणी मुमुक्षुओ के प्राण है उनकी सांसो में समायी हुई है |
गुरुदेव के द्वारा  आँखों को बंद कर अंतर्मुख होकर आत्मा के आनंद और आह्लाद से परिपूर्ण  "समयसार" अमृत जल की वर्षा में कषायो से और  कर्त्तव भार से संतप्त अंतसस्थल को असीम शांति का वेदन होता है | 
ऐसी अद्भुत तत्त्व विवेचक के ह्रदय में सभी जीवो के प्रति अत्यंत करुणा का भाव रहता था | जीवन की अनमोलता और दुर्लभता का वर्णन वे अत्यंत द्रवित भावो से करते है | तीर्थंकरो का भी विरोध हो सकता है  इसी प्रकार  इतने  प्रभावशाली व्यक्तित्त्व को भी विरोध का सामना करना पड़ा  परन्तु उससे  किंचित भी विचलित  हुए बिना सत्य का उद्घाटन अनवरत जारी रखते हुए गुरुदेव विरोधियो को भी विरोधी नहीं समझते थे अपितु उनके प्रति विशेष करुणा  भाव के साथ भुलैला भगवान् कह कर संबोधित करते थे |
शुभ भावो और शुभाचार और बाह्य व्रत रुपी क्रिया काण्ड को ही धर्म मान कर जो जीव स्वयं को पामर समझकर मात्र भक्त बन कर अपना अमूल्य मानव भव  नष्ट कर रहे थे ऐसे जीवो कारण परमात्मा के दर्शन करा कर उनके अन्दर प्रभुता का भाव जगाया | भगवान् स्वरुप समझाकर भगवान् आत्मा कह कर उनके अन्दर आत्मविश्वास जगाया |
 गुरुदेव को अपूर्व श्रुत की लब्धि थी  उनके पास पूर्व भव का विषद निर्मल ज्ञान था संस्कार थे| गुरुदेव को समयसार तो बहुत बाद में मिला था परन्तु समयसार में वर्णित अटल सिद्धांत उनके प्रवचनों का हिस्सा तो पहले से ही बने हुए थे|  गुरुदेव श्वेताम्बर मत में जन्म लेकर उसी सम्प्रदाय में स्थानकवासी साधू बन कर प्रवचन किया करते थे और उनके ग्रंथो में से वीतराग भाव को खोज खोज कर उन पर बल दिया करते थे जिस पर उनके साथी साधू भी आश्चर्य करते थे | यह बात इस बात का सशक्त प्रमाण है की गुरुदेव को पूर्व भव से ही श्रुत की लब्धि थी जो की इस भव में समयसार का दर्शन कर पुनः प्रकाशित हो गयी | इसी लब्धि के कारण ही वे समयसार की गाथाओ के पीछे छुपे हुए रहस्यों को समझ सकने में सक्षम हुए | आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द्र  के हृदय के भावो को उनके अभिप्राय को सूक्ष्मता से ग्रहण कर लिया करते थे और अपने प्रवचनों के माध्यम से तत्त्व पिपासु जीवो की तृषा का शमन किया किया करते थे | गुरुदेव के पास सीमंधर भगवान् से प्राप्त देशना थी |  विदेह क्षेत्र की उस ओमकार नाद की गूंज से उन्होंने भारत क्षेत्र को भी गुंजायमान कर दिया | मानो गुरुदेव समयसार के गणधर बन कर भरत क्षेत्र में आये हो |
जैन दर्शन के अकाट्य सिद्धांत  वस्तु स्वतंत्रता , अनेकांत , स्यादवाद ,  क्रमबद्धपर्याय, उपादान निमित्त,कारण कार्य  निश्चय व्यवहार  आदि जो की सुप्त रूप में थे गुरुदेव की क्रांतिकारी वाणी से तेज प्राप्त कर पुनः जन जन की चर्चा का विषय बन गए है |  
स्वाध्याय चिंतन और प्रवचन  गुरुदेव की व्यवस्थित जीवन चर्या के अंग थे गुरुदेव को देख कर लोग अपनी घड़िया मिला लिया करते थे | 

 वास्तव में यदि पूज्य गुरुदेवश्री के विवेचन प्रतिपादन के बिना जैन दर्शन की कल्पना करे तो महसूस होता है की यदि वास्तव में गुरुदेव नहीं आये होते तो आज सत्य सनातन जैन धर्म कही विलीन हो गया होता ...........
 वस्तु स्वरुप......  मोक्षमार्ग जो जैन दर्शन की अद्वितीय विशेषता है   गुरुदेव रुपी ज्ञान सूर्य के अभाव में लुप्त हो गया होता | गुरुदेव की अमृतवाणी के सींचन के बिना जैन दर्शन  का आध्यात्म उद्यान सूख गया होता बंजर बन गया होता | तत्त्वज्ञान से सूखी हुई इस तप्त भूमि को गुरुदेव ने अपनी वाणी रुपी घनघोर अमृत वर्षा से अभिसिंचित कर  जैन दर्शन के महान आध्यात्म को पुनः हरा भरा किया | 
गुरुदेव ने सर्वज्ञता को सर्वज्ञ स्वाभावी आत्मा का गुणानुवाद  कर जिनवानी की जो अद्भुत प्रभावना की है उस ऋण से हम सभी उऋण नहीं हो सकते है |
 गुरुदेव के अनंत उपकार को ह्रदय में रख कर उनके द्वारा प्रतिपादित तत्त्व विवेचन को शिरोधार्य करते हुए  गुरुदेव को विनम्र भावांजलि .......... श्रद्धांजलि ..........     शब्दांजलि सादर समर्पित .....................
        

Wednesday, December 21, 2011

श्रमण संस्कृति के मुकुटमणि आचार्य कुंद कुंद

श्रमण संस्कृति के मुकुटमणि  आचार्य कुंद कुंद  दिगम्बर मूल परंपरा के वज्र कवच है |  2000    हजार  वर्ष      से जैन क्षितिज  पर चमकते दिनकर कुन्दकुन्द ने अपनी प्रभा से शाशन की धवल कीर्ति को जीवित रख इसका शीर्ष ऊँचा किया है | इनके सर्वाधिक गरिमामयी यशश्वी जीवन   का प्रबल प्रमाण यह है की उन्हें भगवान महावीर और उनके  मुख्य गणधर   गौतम स्वामी के तत्काल बाद मंगल के रूप में स्मरण किया जाता है | यह एक अबाधित सत्य है की आचार्य  कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन धर्म की मुद्रा अथवा पहचान ही बन गए है |
       अध्यात्म श्रुत शिखर की नीव के पत्थर ,भरत क्षेत्र  के जन-मन को आत्म विद्या का पाठ पढ़ाने वाले आचार्य कुन्दकुन्द के ज्ञान सिन्धु से प्रवाहित अध्यात्म की अजस्र धारा आज    भी इस  धरती को समृद्ध बना लोक मांगल्य की और बढ़ रही  है | साहित्य धारा की सृजन श्रृंखला में गद्य  की अपेक्षा पद्य में  भावाभिव्यक्ति क्षमता अधिक होने से काव्य को ही उन्होंने अपने साहित्य प्रणयन का माध्यम बनाया और जैन साहित्य कोष को विपुल काव्य भण्डार देकर इस विश्व को उपकृत किया है | सचमुच कुन्दकुन्द की आत्मविद्या का यह अशोक वृक्ष मूलाम्नाय की  छाया देने वाला मजबूत जड़ो वाला तरु है | 
       दिगम्बर आमनाय  ही मूल आम्नाय  कही जाती है , मूल का अर्थ प्रधान एवं जड़ भी होता है | जैन श्रावक व साधू की कसौटी  मूलगुण होती है और वह मूल परम्परा का अनुगामी होता है | जिस प्रकार मूल के बिना वृक्ष व शाखा की उत्पत्ति संभव नहीं होती है वैसे ही मूल मार्ग के बिना परमार्थ की उत्पत्ति असंभव है |   आचार्य कुन्दकुन्द ने  मुल संघ   परम्परा की संरक्षा एवं परिवर्धन  करते हुए विशुद्ध चारित्र धर्म एवं मुल आचार संहिता की पुनः स्थापना की | मुल आम्नाय  मुल दिगम्बर जैन धर्म की सुरक्षा के लिए किये गए इस योगदान से उनके अंतर्मुखी व्यक्तित्त्व  का अंकन कर लेना कठिन नहीं है | 
         वे ऋद्धि प्राप्त महा मुनि थे  बाल दीक्षित थे विलक्षण प्रज्ञा सम्पन्न थे इतना मात्र उनके व्यक्तित्त्व का पैमाना नहीं वरन मुख्यतः इसलिए की उन्होंने जनजीवन के उत्थान हेतु आध्यात्म की व्यापक दृष्टि, शास्वत सुख के अकाट्य समाधान दिए जिन्हें पाकर  मृतक कलेवर को मनो प्राण वायु ही मिली है | वास्तव में उनके व्यक्तित्त्व का भावपक्ष जितना धवलधारा सा  स्वच्छ है द्रव्य पक्ष भी कोमल भावनाओ से आच्छादित पूर्णमासी के चन्द्र सा श्वेत है | आपके   इस व्यक्तित्त्व व साहित्य की गोदी में अनेक निर्ग्रन्थ संतो को विश्राम मिला है |
 आगम का सार आध्यात्म में छुपा होता है , अतः आगम व आध्यात्म का प्राण शुद्ध चैतन्य को ही उन्होंने अपनी लेखनी का मुख्य बिंदु चुना | कुन्दकुन्द के यह परमागम स्वर्ण सौरभ योग है ,भव्य जीवो पर अत्यंत करुणा कर भरत क्षेत्र की इस पावन   भूमि  पर आध्यात्म वाटिका का बीजारोपण कर संत शिरोमणि  ने  इसका सींचन किया है जिस  पर खिले  परमागम की शीतल  छाया  अनेको   मुनिवरो अज्ञ प्राणियों को मुक्ति की राह देती है .................
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Tuesday, December 20, 2011

"समयसार "

बनावुं पत्र  कुंदननां, रत्नोंना  अक्षरों लखी ,
तथापि कुन्द्सुत्रोंना  अन्काये मूल्य ना कदी 

Saturday, December 17, 2011

समयसार

निज स्वरुप को परम रस जामे भरयो अपार !
वंदु परमानन्दमय समयसार अविकार !!
जैन दर्शन का सिरमौर ग्रन्थ " समयसार " आचार्य कुन्दकुन्द की अनुपम रचना है ! निज भगवान् आत्मा के स्वरुप का प्रतिपादक यह ग्रंथाधिराज जैनागम का अजोड अमूल्य रत्न है ! 
       मंगलाचरण  में भगवान् महावीर और उनके मुख्य गणधर गौतम स्वामी को नमस्कार करने के तुरंत बाद जिन संत शिरोमणि आचार्य कुन्दकुन्द को समरण वंदन कर प्रत्येक जैनी अपना मांगलिक कार्य प्रारंभ करता है  ऐसे आचार्य की यह अद्वितीय रचना समयसार है ! ऐसे महामंगल स्वरुप आचार्य जिनकी परम्परा ....... जिनकी आम्नाय का स्वयं को कहकर हम सभी स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते है ! ऐसे आचार्य की यह अद्भुत कृति  है समयसार !
     पञ्च परमागमो में भी निज भगवान् आत्मा का जैसा सूक्ष्म निरूपण इस ग्रंथाधिराज समयसार में किया गया है वेसा अन्यत्र कही भी दुर्लभ है ! अध्यात्म गगन में विचरने वाले आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाये समय्क्त्व, संयम व सिद्धांतो का दस्तावेज है ! जिनमे जीवन की शाश्वत अनुभूति व सुख दुःख की समस्याओ के सरल समाधान प्रस्तुत कर दुःख की व्याख्या का ही अंत कर द्र्व्यद्रिष्टि  का सुखद अवदान विश्व को दिया है ! 
             जिस ओर हमारी रूचि होती है उस ओर हमारा चिंतन सहज ही चलता रहता है और विषय पर हमारा निरंतर चिंतन चलता रहता है वही विषय हमारी अभिव्यक्ति में सहज ही आता रहता है इसी प्रकार आत्मतत्व की गहरी रूचि वाले महामुनि का  दिन रात  आत्मा का ही चिंतन चलता रहता है और वही चिंतन उनकी वाणी से प्रस्फुटित होता रहता है! 
          ग्रंथाधिराज समयसार की रचना  छटे- सातवे गुणस्थान में भ्रमण करते हुए की गयी है ! सातवे गुणस्थान की  शुद्धात्मानुभूती  में आकंठ डूब कर  वापस छटे गुणस्थान में आने पर आचार्य को अत्यंत करुणा  भव्य जीवो के  प्रति आयी और हमारे महाभाग्य से शास्त्र रचना करने का विकल्प भी  उन्हें आया और इस प्रकार इन परमागमो का प्रादुर्भाव हुआ  !
         समयसार की  गाथाओ में केवलज्ञान की झंकार है ......... चैतन्य चमत्कार की टंकार है .........      स्वानुभूत  प्रसूत इन गाथाओं चमत्कारिक शक्तिया है जिससे यह ग्रन्थ  इसमें वर्णित शुद्धात्म तत्त्व के बोध की प्रेरणा का  भाव प्रवाह आज भी श्रोताओ पाठको के हृदय में संचरित  कर सकने में समर्थ है ! 
   आकाश सी ऊंचाई रत्न सी जडित शब्दावली एवं अनुपम भावो से आच्छादित यह समयसार ग्रंथाधिराज एवं इसकी टीकाए जैन साहित्य की ही नहीं वरन सम्पूर्ण भारतीय प्राकृत , संस्कृत एवं हिंदी साहित्य का बेजोड़ संग्रहालय   है !
  आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी स्वयं लिखते है की जो भव्य जीव इस समय प्राभृत को पढ़कर उसे अर्थ एवं तत्त्व से जानकर , उसके अर्थ में स्वयं को स्थापित करेगा वह उत्तम सुख (अतीन्द्रिय मोक्षसुख )को प्राप्त करेगा !
 समयसार जिनवानी श्रुतगंगा का सारभूत  आध्यात्म रसपूर्ण ग्रन्थ शिरोमणि है ! समयसार केवली -श्रुतकेवली की वाणी सार है ! इसके अध्ययन -मनन- चिंतन एवं अनुभवन से अपने तथा पर के मोह का नाश होता है ऐसा अभिप्राय आचार्य अमृतचन्द्र ने भी व्यक्त किया है ! वे समयसार को जगत का अद्वितीय एवं अक्षय चक्षु है - ऐसा कहते है साथ ही लिखते है की समयसार से श्रेष्ठ महान वास्तव में जगत में कुछ भी नहीं है
    आचार्य जयसेन स्वामी समयसार की महिमा बताते हुए अपनी तात्पर्यवृत्ति   नामक टीका के अंत में घोसना करते है की आत्म रस के रसिको द्वारा वर्णित इस तात्पर्य नामक प्राभृत शास्त्र को जो कोई आदरपूर्वक सुनेगा , पढ़ेगा अभ्यास करेगा और इसकी प्रभावना करेगा वह जीव शाश्वत निर्मल अद्भुत केवलज्ञान को प्राप्त करके आगे मोक्ष रुपी लक्ष्मी में लीन रहेगा !
श्री कांजी स्वामी के शब्दों में समयसार की महिमा इस प्रकार है - " यह समयसार शास्त्र आगमो का भी आगम है लाखो शास्त्रों का सार इसमें है जैन शाषन  का स्तम्भ है , साधको की कामधेनु है कल्पवृक्ष है ! चौदह पूर्वो का रहस्य इसमें समाया हुआ है ! इसकी हर गाथा छटे -सातवे गुण स्थान में झूलते हुए महा मुनि के आत्मानुभव से निकली हुई है !   
 त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेव  के मुख से प्रवाहित श्रुतामृत की सरिता से जो अमृत कलश भर लिए गए है वे वर्तमान में भी अनेक आत्मार्थियो को आत्मा जीवन अर्पण करते है !इस शास्त्र का एकमात्र उद्देश्य यथार्थ आत्मस्वरूप की पहिचान करना है वास्तव में इस समय में यह शास्त्र मुमुक्षु भव्य जीवो का परम आधार है ऐसे दुशम काल में भी ऐसा अद्भुत अनन्य शरणभूत  शास्त्र है जिसमे तीर्थंकर देव के श्रीमुख से निकला हुआ अमृत विद्यमान है यह हम सबका महासौभाग्य है की हमें यह  शास्त्र सम्पूर्ण रूप से प्राप्त हुआ और साथ ही ग्रन्थ के भावो को सरल कर समझाने वाले आचार्यो की टीकाएँ भी प्राप्त हुई!
      इस सौभाग्य पर भी अधिक सौभाग्य हमारा है की आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य अमृत चन्द्र के हृदय को समझने वाले वे संत जिनका की जीवन ही समयसार के कारण परिवर्तित हो गया और पूर्ण रूप से समयसारमय ही हो गया था ऐसे पूज्य गुरुदेव श्री कहान्जी स्वामी का प्रत्यक्ष समागम हमें प्राप्त हुआ जिनके द्वारा उदघाटित परम सत्य के द्वारा हम आचार्यो के हृदयंगम भावो का रसास्वादन कर सकने में समर्थ हो सके है .........................

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